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मानवता का दर्द

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यह कैसा लोभ!
हर तरफ विक्षोभ ही विक्षोभ।।
लालच के अंधे छीन रहे हमारा सुख चैन।
जनता भूख व बदहाली से मारी फिरती है दिन रैन।।
चारों तरफ फैला एक अजीब सा सन्नाटा।
भ्रष्टाचार का काला धुंआ हर तरफ छाता जाता।।
जिधर देखो, हो रहा मानवता का खून है।
कहीं दूर अधेंरों में दुबक गया सुकून है।।
मासूम चेहरों पर है गंभीरता की लकीर।
बन गये अमीर मन से फकीर।।
हमारे नेता सत्ता का सुख भोग रहे।
जनता के आंसू मिट्टी में दफन हो रहे।।
हर तरफ साम्प्रदायिकता की अग्नि धधक रही।
उसमें गरमा गरम राजनीति की रोटियां है सिंक रहीं।।
आदमी ही आदमी को रहे रोंद।
नेताओं की बढ रही आमदनी वाली तोंद।।
मानवता का दर्द बढ़ता ही जा रहा।
कैसे बचेगी वह यह दुख सबको सता रहा।।

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