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कान्टेस्ट
हिन्दी गरीबों, अनपढ़ांे की भाषा बनकर रह गयी है
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, लेकिन उसे अपने ही घर में बहुत हीन दृष्टि से देखा जाता है। अपने ही लोगों की उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।कोई भी राष्ट्र प्रतीक, चिन्ह, भाषा, वस्तु हो , उसको अपने देश में बहुत सम्मान हासिल होता है और देशवासी उसके साथ जुड़कर अपने को गौरावान्वित महसूस करते हैं।लेकिन हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने देश में कोई भी गौरव, सम्मान हासिल नहीं है।अधिकतर देशवासी हिन्दी भाषा में बोलना, लिखना, पढ़ना अपना अपमान समझते हैं।हिन्दी माध्यम में पढ़ा लिखा व्यक्ति, हिन्दी भाषा में बात करने वाला कितना भी पढ़ा -लिखा हो लेकिन यदि उसे अंगे्रजी नहीं आती है, तब उसकी पढ़ाई-लिखाई का कोई मोल नहीं समझा जाता है।उसे अनपढ़ की श्रेणी में ही गिना जाता है। कहीं सार्वजनिक स्थलों,पार्टियों में उसे महत्व नहीं दिया जाता है। इसके अलावा सबसे ज्यादा तो उसे अच्छी नौकरी मिलने में परशानियों का सामना करना पड़ता है। आप अच्छी हिन्दी न जानते हों तो आपको एक अच्छी नौकरी मिल सकती है चाहे आपकी पढ़ाई कोई इतनी खास हो चाहे न हो, कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन यदि आपको अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान नहीं है तो आपकी काबिलियत उतनी मायने नहीं रखती। यह हमारे देश में एक बहुत बड़ी विडम्बना है।
प्रोफेशनल कोर्सेस, तकनीकी शिक्षा व उच्च शिक्षा तो बहुत ही कम हिन्दी में उपलब्ध हैं, और न ही हिन्दी में अच्छी किताबें।अगर हैं भी तो उतने अच्छे स्तर की नहीं। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि विद्वानों, बुद्विजीवियों के देश में उच्च स्तर की हिन्दी किताबें लिखने वाला कोई नहीं।इसकी सच्चाई यह है कि हिन्दी में लिखी किताबें उतनी बिकती ही नहीं और अंग्रेजी किताबों की तुलना मे उन्हें पैसे भी कम मिलते हैं। यह सिर्फ कोर्स की किताबों में ही नहीं हिन्दी की सांहित्यिक किताबों को भी कम ही आंका जाता है। इस तरह से हिन्दी किताबें लिखने वाले भी निरुत्साहित होते हैं और वे अंग्रेजी भाषा की ओर प्रवृत्त हो जातें है।और हां हिन्दी में आप इक्जाम में लिखें तो उतने अच्छे नंबर नहीं मिलते जितने अंग्रेजी में लिखने पर। हाईस्कूल, इंटर में हिन्दी माध्यम के बच्चे अंगे्रजी में परिभाषाये लिखें, कोट्स लिखें तो उन्हें अच्छे नंबर मिलते हैं। इस तरह से यह अंग्रेजी को प्रोत्साहित और हिन्दी को निरुत्साहित किया जा रहा है। यदि हिन्दी माध्यम का प्रयोग करने वाले को अच्छे नंबर मिले तो हिन्दी जानने-समझने की बच्चों की ललक बढ़ेगी। जबकि हिन्दी मीडियम होने से हर जगह उपेक्षा मिलने से उनके मन में हिन्दी के प्रति घृणा पनपने लगती है। यह और भी बढ़ती है जब वे नौकरी के लिये प्रयास करते हैं। यह उपेक्षा तब तक चलती है , जब तक कि वह अंगे्रजी में पांरगत न हों जायें। ं
हमारे देश में अंग्रेजी को एक मामूली भाषा नहीं बल्कि उसे पढ़े-लिखे, सभ्य लोगों से जोड़ दिया गया है।अंग्रेजी स्टेटस सिंबल बन गई है। आप कुछ पढ़े-लिखे न हो लेकिन हां बस अंग्रेजी जान लीजिये तो कोई आप केा गंवार नहीं कहेगा। लेकिन यदि कितने भी पढ़े-लिखे हैं, यदि अंग्रेजी नहीं जानते तो आपकी पढ़ाई-लिखाई धरी की धरी रह जायेगी। इस अवस्था में हिन्दी भाषी अपने को अपमानित नहीं महसूस करेगा तो क्या करेगा? कई बड़े-बड़े खिलाड़ी, हीरो-हिरोईनें अंग्रेजी जरुर सीखते हैं, क्योंकि इसके बिना उन्हें हर जगह उपेक्षा का सामना करना पडे़गा। हिन्दी को लोग गरीबों व अनपढ़ो की भाषा समझी जाती है और अंग्रेजी आती हो तो अनपढ़ होते हुये भी व पढ़ा – लिखा, उंची सोसायटी का माना जाता है।
नूपुर श्रीवास्तव
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